Friday, September 11, 2009

शुष्क रुदन






बिन अश्रु यह शुष्क रुदन

तरु-ताल छाव में ग्रीष्म बदन

उर को चित्त से तटस्थ
किये

क्यों आज यह बेकल मन?



चित्त की चिर चंचलता

अवसन्न तरु-सी स्थायी

तप्त- पवन के हस्तक्षेप से

सहज क्रोध से मुसकाई




दीर्घ विकलता में लघु राहत

और अधिक करती आहत

परतंत्र क्रोध है अड़चन में

यह शुष्क रुदन किस बाबत?




प्रिय! दो फूटकर रोने की स्वतंत्रता

म्लान मन अश्रु जल से धुलने दो

संयोग-वियोग के मध्यस्थ से

किसी एक पक्ष में धकेल दो .
- पंकज बोरा

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